एजुकेशन विजय, मुज़फ्फरपुर, 11 मार्च । दोनों आंखों में रोशनी नहीं, फिर भी हर पल शिक्षा के लिए साधना। शुरुआती दौर में संगीता ने नौकरी को ठुकरा दिया और दिव्यांगों के लिए खोल दिया शुभम विकलांग संस्थान। इसके उपरांत चल पड़ीं उन बच्चों के बीच नि:शुल्क शिक्षा की अलख जगाने, जो दिव्यांग थे। इरादा नेक था, सो कामयाबी मिलती गई।डॉ. संगीता अग्रवाल मुजफ्फरपुर की निवासी हैं। 1961 में जन्मीं संगीता को अपने पिता सुदर्शन अग्रवाल से प्रेरणा मिली। संस्कृत में एमए करने के बाद रूसी व जर्मन भाषा में सर्टिफिकेट और डिप्लोमा कोर्स किया। एमफिल के बाद पीएचडी की। राष्ट्रीय स्तर का नीना सिब्बल अवार्ड देकर देश ने उनके काम को सराहा। बेहतर सामाजिक कार्य के लिए बिहार विकास रतन अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है।इनके मार्गदर्शन से कोई बैंक का पीओ तो कोई वकील बनकर सफल जीवन यापन कर रहा है। कई शिक्षक बन चुके तो कई उस मार्ग पर हैं।संगीता की मानें तो दिव्यांगों को अभिभावक पढ़ाना नहीं चाहते हैं। उन्हें लगता है कि पढ़ाने में पैसे खर्च होंगे, रिर्टन कुछ नहीं है। शुरुआती दौर में जब उन्होंने संस्थान खोला तो कोई बच्चा यहां पढऩे नहीं आना चाहता था। तब उन्होंने आसपास के गांवों में जाकर अभिभावकों को जागरूक करना शुरू किया। अभिभावकों ने उनकी बात को समझा और बच्चों को पढऩे वास्ते भेजना शुरू किया। धीरे-धीरे कारवां बनता गया।इस अभियान को झटका न लगे, इसके लिए उन्होंने शादी न करने का फैसला किया। 1996 में जब संस्थान में गति आ गई और उन्हें लगा कि अब उनके अरमानों को झटका नहीं लगेगा। तब, 1996 में एलएस कॉलेज में योगदान दिया। वर्तमान में वे एसोसिएट प्रोफेसर हैं और ग्रेजुएट तक के छात्रों को संस्कृत पढ़ाती हैं। इसके अलावा संस्थान के बच्चों को मार्गदर्शन देती हैं।संगीता की प्रेरणा से आज कई को उनकी मंजिल मिल चुकी है।मुजफ्फरपुर के लदौरा गांव निवासी कैलाश कुमार भगत 1994 में शुभम से जुड़े थे। अत्यंत गरीब परिवार के थे। मैट्रिक तक की पढ़ाई यहीं से की। वर्तमान में बैंक में पीओ की नौकरी कर रहे हैं। लकड़ीढाही निवासी रमेश कुमार पंजाब नेशनल बैंक में पीओ हैं। मीनापुर के बजरंगी राणा दिल्ली हाईकोर्ट में वकील हैं। यहां की छात्रा सुनैना ने संस्कृत से ऑनर्स किया है। वह संगीता की राह पर चलना चाहती है।वैशाली की ज्योति कुमारी 11वीं की छात्रा है। वह पढ़-लिखकर शिक्षक बनना चाहती है। नालंदा का पिंकू कुमार 12वीं की परीक्षा देगा। वह बैंकिंग सर्विस में जाना चाहता है। पूर्णिया का मोहम्मद अरशद छह का विद्यार्थी है। मोतिहारी के सोनू की दास्तां कुछ अलग है। पांच साल का था, तब तेजाब को पानी समझ सिर पर डाल दिया। पूरा चेहरा व आंखें जल गईं। मगर, उत्साह कम नहीं हुआ। आइएएस अफसर बनना चाहता है।
दिव्यांगों को पढ़ा रहे शिक्षक उत्साह से लबरेज हैं। ये इस पुनीत काम को आराधना समझते हैं। समस्तीपुर निवासी सत्येन्द्र कुमार मिश्र हिंदी व संस्कृत पढ़ाते हैं। मणिभूषण खेल के शिक्षक हैं। इनकी प्रेरणा से यहां के कई छात्रों ने खेल प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। दौड़ में मेडल भी जीते। तपेश्वर यादव भी जी जान से पढ़ाने में जुटे हैं। रेणू कुमारी उन बच्चों को शिक्षा देती हैं, जो कान से सुन नहीं सकते हैं। वर्तमान में ऐसे बच्चों की संख्या सात है।1993 में शुभम विकलांग संस्थान अस्तित्व में आया। इसी साल एक कमेटी गठित हुई। इसमें भारत भूषण वंसल, विनोद कुमार कपूर जैसे कई गणमान्य लोग जुड़े।
वर्तमान में कमेटी के अध्यक्ष विनोद कुमार कपूर हैं। 26 जुलाई 1994 को शुभम का पंजीकरण बिहार सरकार से कराया गया। उस समय इस संस्थान में दो-तीन बच्चे ही थे, 1994 में 30 हो गए। इसी साल हॉस्टल की शुरुआत हुई।यहां सभी दिव्यांगों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है। रहने, कपड़े और यहां तक कि खाना भी फ्री। वर्तमान में यहां 80 बच्चे हैं। 50 से 55 हॉस्टल में रहते हैं। यहां मैट्रिक तक की तैयारी कराई जाती है। इसके उपरांत बिहार बोर्ड से परीक्षा दिलाई जाती है। इच्छुक ग्यारहवीं व बारहवीं के बच्चों को तैयारी में मदद दी जाती है। पांच शिक्षक दिव्यांगों का कॅरियर संवार रहे हैं। इस नेक काम में कई गणमान्य व संपन्न लोग आर्थिक सहयोग देते हैं।
डॉ. संगीता अग्रवाल, महासचिव, शुभम विकलांग विकास संस्थान ने कहा कि ‘प्रदेश के बच्चों को ऊंची पढ़ाई के लिए बाहर न जाना पड़े, सरकार को इसके लिए उत्तम व्यवस्था करनी चाहिए। दिव्यांगों को क्वालिटी पूर्ण शिक्षा मिले, क्योंकि कमजोर पढ़ाई से नौकरी नहीं मिलती। यह इंतजाम भी होना चाहिए कि बच्चे कंप्यूटर के माध्यम से परीक्षा दी
‘विनोद कुमार कपूर, अध्यक्ष, शुभम विकलांग विकास संस्थान, का कह्ना है कि शुभम विकलांग संस्थान उत्तर बिहार की सबसे बड़ी संस्था है। यहां मैट्रिक तक की तैयारी कराई जाती है। इसके उपरांत बिहार बोर्ड से बच्चों का फॉर्म भरवाया जाता है। संस्था का एक ही उद्देश्य है कि दिव्यांग पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े हों।
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